सोमवार, 25 जनवरी 2010

लड़ाई, दलीलें, भावनायें और विचार

लड़ाई, दलीलें, भावनायें और विचार
समंदर के किनारे जाकर
सोचता हूं
ये अंतहीन किनारा ठीक मेरी लड़ाई की तरह है,  
खीझ भरी और अंतहीन लड़ाई.

तपिश से सूखते पेड़ की फैलती सिमटती परछाई   
खुद के लिये बेकार
ठीक मेरी दलीलों की तरह
लंबी, छोटी, अस्थिर
लगातार अपना असर खोती दलीलें.

उभरी हड्डियों वाली छाती के खांसने कराहने
की ही तरह होती हैं शायद
भावनायें
एक द्वंद भरी त्रासदी.

और,

विचार बस घास जैसे
मौसम के साथ सूखते हरे होते
मरते नहीं
शायद जड़ें बहुत गहरी हैं.
मिट्टी फाड़ बाहर निकल आयेंगे विचार
लड़ाई, दलीलों और भावनाओं के बीच
विचार
घास जैसे.
-बालकृष्ण अय्यर

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

इंतजार...


   WAITING... - A painting by IMAN MALEKI (Iran)


इंतजार
लंबे पलों के बीच
फुसफुसाकर समय बताती दिवाल घड़ी
इंतजार में लिपटा
हर सॆकंड
उगाता है
काले-काले,
 पसीने से सराबोर सवाल
कानों को बींधती है कोई लौटी हुयी आवाज
शायद किसी गुजरे हुये दिन से टकराकर
उनींदे दिनो के बीच
सूरज के उगने, चढ़ने और डूबने के बाद
वो ढकेलती है तारीखों को
उसकी तकती आँखे सिकोड़ देती है
सड़कों को
बेचैनी से
मलती है हथेलियों को
और पैदा करती है
कुलबुलाहट भरे सवाल
बार-बार नहाती है वो उदासी से
कुछ और गहरा जाता है
उदासी का रंग, और फिर
उदासी के खिलाफ
उदास हो जाती है वो
बस करती है इंतजार...
-बालकृष्ण अय्यर



शनिवार, 9 जनवरी 2010

दौर्

          दौर
अनिर्णित से शुरू होती है हर सुबह, और
हर शाम अनिर्णित में डूब जाती है
हर रोज शुरू होता है
एक नया खिंचाव
टूटने से ठीक पहले तक
शिराओं में,
ठीक वहीं
बहते खून की सनसनाहट के नीचे
एक जंगल है
बियाबान, यहाँ
रोज कुछ ज्यादा अकेला होते जाने के
इस दौर में
जी रहे हैं,
हम
पुरानी बातों, पुरानी चीजों और
पुराने लोगों को याद करते हुये.


-बालकृष्ण अय्यर

सोमवार, 4 जनवरी 2010

क्या तुम किसी हिन्दुस्तानी औरत को जानते हो?


क्या तुम किसी हिन्दुस्तानी औरत को जानते हो?

उसमें बरसात के बाद की
सौधीं मिट्टी की महक है
आश्व्स्त हो जाओगे
उसकी सासों की लय से
पाओगे उसकी बाहों के दायरे में एक सुकून एक सुरक्षा



वह उस् पेड़ की तरह है, जिसके
आस पास जमीन सूखी पथरीली
पेड़ फिर भी हरा-भरा
जड़ें जरूर गहरी है



पास गिरे किसी पत्ते को उठाकर देखो
उसकी धमनियों में तुम
खुद को खून की तरह बहता पाओगे



वह हवा की तरह है
कभी धीमी कभी तेज
वक्त से बेपरवाह
यह हवा तुम्हें
उछाल भी सकती है
ठीक उस तरफ
जिधर तुम्हें जाना है,


किसी धधकती भट्ठी के पास बैठकर
आँच से आते
पसीने को यातना को
महसूस करो
उसे देखो
हमेशा वहीं बैठा पाओगे

लगता है पहाड़ हो गयी हो,


वह असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरी है
वह पहाड़ में दरवाजे बना सकती है
और हर दरवाजे से
पूरा का पूरा पहाड़ गुजार सकती है



 क्या तुम सचमुच उसे पहचानते हो?
क्या तुम किसी हिन्दुस्तानी औरत को जानते हो?

- बालकृष्ण अय्यर