शनिवार, 9 जनवरी 2010

दौर्

          दौर
अनिर्णित से शुरू होती है हर सुबह, और
हर शाम अनिर्णित में डूब जाती है
हर रोज शुरू होता है
एक नया खिंचाव
टूटने से ठीक पहले तक
शिराओं में,
ठीक वहीं
बहते खून की सनसनाहट के नीचे
एक जंगल है
बियाबान, यहाँ
रोज कुछ ज्यादा अकेला होते जाने के
इस दौर में
जी रहे हैं,
हम
पुरानी बातों, पुरानी चीजों और
पुराने लोगों को याद करते हुये.


-बालकृष्ण अय्यर

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहते खून की सनसनाहट के नीचे
एक जंगल है
बियाबान, यहाँ
रोज कुछ ज्यादा अकेला होते जाने के
इस दौर में
जी रहे हैं....

बहुत सही कहा आपने.... बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता....

आभार...

मनोज कुमार ने कहा…

चूंकि कविता अनुभव पर आधारित है, इसलिए इसमें अद्भुत ताजगी है।

Kusum Thakur ने कहा…

बहुत अच्छी रचना है , बधाई !!

बेनामी ने कहा…

अच्छी रचना अय्यर जी

हास्यफुहार ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।

अपूर्व ने कहा…

शहरी जंगल के भीड़ भरे बियाबानों मे रोज आखेट कर अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाते रहने की कोशिश और स्मृतियों को खोते जाने के बीच इस अबुझ अकेलेपन की गहरी होती शिद्दत और दुविधा को बहुत अच्छे से उकेरा है आपने इस कविता में
..पहले पंक्ति मे अनिर्णीत की बजाय अनिर्णय का प्रयोग कैसा रहे.