सोमवार, 21 दिसंबर 2009

कविता टुकड़ों में



 नाव में सवार होकर
अक्सर मैं चला जाता हुं
समंदर के बीच
चप्पू से बार-बार ढ़केलता हुं
पानी को किनारे की ओर
लहरों के थक जाने की आशंका है मुझे.



                                                                                                                               





                                                                                                                                          उम्मीदें अक्सर

गुम हो जाती हैं
मछलियों की तरह
हाथों से फिसलकर
और
हर बार
 नजर आते है
      मुंह ओढ़े, बेजार से,
      हारे हुये हम.

5 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

उम्मीदें अक्सर
गुम हो जाती हैं
मछलियों की तरह
हाथों से फिसलकर
और
हर बार
नजर आते है
मुंह ओढ़े, बेजार से,
हारे हुये हम.


शास्वत सत्य कह गये अय्यर भाई आप,
दो्नो कविताएं, जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं को प्रदर्शित करती हैं। आभार

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत सुंदर भावपूर्ण संदेश!

हास्यफुहार ने कहा…

संवेदनशील रचना।

36solutions ने कहा…

सागर से टकराने का जज़बा जब हृदय में हो तब लहर को थकना ही है. या भावनाओं के उत्‍तुंग लहरों के बीच भी शांत मानस है.


आपकी उम्‍मीद हर नब्‍ज में जीवंत है. धन्‍यवाद भईया.

Shrinivas ने कहा…

Kya Baat Hai...!!Adbhut..