कविता टुकड़ों में – १
अक्सर मैं चला जाता हुं
समंदर के बीच
चप्पू से बार-बार ढ़केलता हुं
पानी को किनारे की ओर
लहरों के थक जाने की आशंका है मुझे.
उम्मीदें अक्सर
गुम हो जाती हैं
मछलियों की तरह
हाथों से फिसलकर
और
हर बार
नजर आते है
मुंह ओढ़े, बेजार से,
हारे हुये हम.
5 टिप्पणियां:
उम्मीदें अक्सर
गुम हो जाती हैं
मछलियों की तरह
हाथों से फिसलकर
और
हर बार
नजर आते है
मुंह ओढ़े, बेजार से,
हारे हुये हम.
शास्वत सत्य कह गये अय्यर भाई आप,
दो्नो कविताएं, जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं को प्रदर्शित करती हैं। आभार
बहुत सुंदर भावपूर्ण संदेश!
संवेदनशील रचना।
सागर से टकराने का जज़बा जब हृदय में हो तब लहर को थकना ही है. या भावनाओं के उत्तुंग लहरों के बीच भी शांत मानस है.
आपकी उम्मीद हर नब्ज में जीवंत है. धन्यवाद भईया.
Kya Baat Hai...!!Adbhut..
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