कविता टुकड़ों में – 3
1. अवसाद से भीगी आत्मा का बोझ लिये
अंधी आस्था का सुर
गूंगे स्वरों के सहारे
काठ की घंटियाँ बजाने की कोशिश में है,
कुछ और नहीं
हमारी कमजोर सोच के कंधो पर सवार
ये हमारा बौना अहं है.
2. इंसानियत का एक बड़ा सा झंडा
यहाँ लहराता है, और
मर कर सड़े इतिहास का कोई पन्ना
रोज फड़फड़ाता है
बार बार इसकी सड़ांध से
दूर भागता हूं, और
किसी अदृश्य से टकराकर
खुद को
इसके किन्हीं पन्नों के बीच पाता हुं.
3. किसी बर्फीले पहाड़ पर उग आयी धूप का
कंधा पकड़कर
खड़ा होता भविष्य
अपने ही भार से लड़खड़ाता है,
लड़खड़ाना हमेशा गिरना नहीं
संभलना भी होता है.