मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

कविता टुकड़ों में - 3

कविता टुकड़ों में 3

1. अवसाद से भीगी आत्मा का बोझ लिये
   अंधी आस्था का सुर
   गूंगे स्वरों के सहारे
   काठ की घंटियाँ बजाने की कोशिश में है,
   कुछ और नहीं
   हमारी कमजोर सोच के कंधो पर सवार
   ये हमारा बौना अहं है.


2. इंसानियत का एक बड़ा सा झंडा
  यहाँ लहराता है, और
  मर कर सड़े इतिहास का कोई पन्ना
  रोज फड़फड़ाता है
  बार बार इसकी सड़ांध से
  दूर भागता हूं, और
  किसी अदृश्य से टकराकर
  खुद को
  इसके किन्हीं पन्नों के बीच पाता हुं.

3. किसी बर्फीले पहाड़ पर उग आयी धूप का
  कंधा पकड़कर
  खड़ा होता भविष्य
  अपने ही भार से लड़खड़ाता है,
  लड़खड़ाना हमेशा गिरना नहीं
  संभलना भी होता है.



शनिवार, 26 दिसंबर 2009

कविता टुकड़ों में - 2


    कविता टुकड़ों में 2

1.      आस्था विवेक और सफलता
      हर लाश की छाती पर मौजूद है
       और पीठ पर
      बदनुमा धब्बे हैं
    मूर्खता कायरता और नीचता के
    प्रतीक सी है हर लाश
    आशंका और आकांक्षा की.



2.  निराशा की काली कोठरी में
    एक छोटे से रोशनदान जैसी
    आकांक्षा
    और
    हर सुबह सूरज उगने के पहले
    उसके बंद हो जाने की
    आशंका.

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

कविता टुकड़ों में



 नाव में सवार होकर
अक्सर मैं चला जाता हुं
समंदर के बीच
चप्पू से बार-बार ढ़केलता हुं
पानी को किनारे की ओर
लहरों के थक जाने की आशंका है मुझे.



                                                                                                                               





                                                                                                                                          उम्मीदें अक्सर

गुम हो जाती हैं
मछलियों की तरह
हाथों से फिसलकर
और
हर बार
 नजर आते है
      मुंह ओढ़े, बेजार से,
      हारे हुये हम.

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

बस्तर में........

इंद्रावती का चौड़ा पाट
उँचाई से तीली सी दिखती
मछुआरे की नाव
गूंगा आदमी आखों और अंगुलियों से,
जितना कह पाता है
बस उतनी है नांव है
बाकी अनकहा

चित्रकूट प्रपात का शोर
कोने में एक पतली धार की अलग मध्दम आवाज
बहरा आदमी सुन पाता है
बस धार जितना
बाकी अनसुना

कुटुम्बसर गुफा के भीतर, कुछ नहीं दिखता
अंधी मछलियों की तरह
स्पर्श और कल्पना गुत्थम-गुत्था है,
अंधा आदमी देखता है
बस स्पर्श जितना
बाकी अनदेखा

जीवन का 
अनकहा, अनसुना,अनदेखा समय जोड़ा तो पाया
अब तक दिन कुछ ऐसे ही बीते हैं
                                                                           - बालकृष्ण अय्यर्